अज़ीज़ रब्बानी चंपारण की उर्दू शायरी के एक सबसे अहम नाम रहे हैं 22 अक्टूबर 2022 की रात करीब 9:00 बजे वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गए जो चंपारण की उर्दू शायरी का एक बहुत बड़ा नुकसान हुआ इनकी कमी अब कोई भी पूरा नहीं कर सकता।
उर्दू कविताओं के ही नहीं बल्कि पूरे देश में मुशायरों के बेताज बादशाह की हैसियत से जाने जाते रहे हैं यह अपनी खास लब व लेहजे और शायरी के अपने खास अंदाज की वजह से काफी शोहरत पा चुके थे करीब 1 साल की लंबी बीमारी की वजह से स्टेज से अलग रहे।
अज़ीज़ रब्बानी मेरे अच्छे पड़ोसी रहे सन 1971 तक, इन की पैदाइश पुरानी गुदरी मोहल्ला में 7 नवंबर 1936 को हुई थी, वहां से 1948 में लिबर्टी सिनेमा के पास किराए के मकान में कुछ दिनों तक रहने के बाद करीब 1949हमारे मोहल्ले मोहल्ला किला मे सैयद सईद अख्तर के हवेली में सन 1971तक रहे इनका कारोबार चूड़ी बनाने एवं बेचने का रहा था, इनके पिता बेतिया राज में अमीन के पद पर थे, 1971मे ही मोहल्ला किशुन बाग में जाकर अपना घर बार बना लिया और आखरी सांस उसी घर में ली।
1950 में अज़ीज़ रब्बानी प्राइमरी स्कूल जंगी मस्जिद बेतिया से पास करने के बाद विपिन मिडिल स्कूल से नवी पास करने के बाद पढ़ाई का सिलसिला टूट गया और इन्होंने मोहम्मद रफी के यहां कंपाउंड री का काम शुरू कर दिया, फिर पढ़ाई का इरादा हुआ और किसी प्रकार मोतिहारी गोपाल साह स्कूल से मैट्रिक पास कर एमजेके कॉलेज बेतिया में दाखिला लिया, यहीं से उनकी शायरी आगाज हुआ.
1958 के जमाने में रमज़ान के महीने के लिए सेहरी का कलाम लिखना शुरू किया यह जमाना मशहूर शायर साजन बिहारी शोहरत का जमाना था उन्हीं को देखकर उन्हीं की तरह तहत में पढ़ने का काम शुरू किया अब्दुस शकूर शाहिद बेतियावी से भी मशवरा लिया इनके बाद इन का कोई उस्ताद नहीं रहा, खैरुल अनाम खान के कहने पर अपना तखल्लुस रब्बानी रख लिया, यह एक कड़वी सच्चाई है कि इन की शायरी शुरू करने से अंत तक बेतिया के अदबी हल्के ने कभी खुलकर इनका साथ नहीं दिया।
मई 1969 में बज़्म सुखन बेतिया के द्वारा एक शाम कौमी एकता के नाम से कुल हिंद मुशायरा की शुरुआत की, करीब सन 2013 में आखरी मुशायरा बज़्में सुखन का 45 वां प्रोग्राम बेतिया राज हाई स्कूल में हुआ था ,उसके बाद से कोई मुशायरा, प्रोग्राम अजीज रब्बानी के बज़्म सुखन द्वारा नहीं हो सका, कई बार इन्होंने अपनी जिंदगी में एक और प्रोग्राम करने की ख्वाहिश जाहिर की थी लेकिन कुदरत को मंजूर नहीं हो सका
5 जुलाई 2021 की रात उनके घर पर मुझसे 1 घंटे से ज्यादा बातें हुई उसकी एक यादगार तस्वीर।
अहमद अली के बड़े पुत्र अब्दुल अज़ीज़ जो अपने शायरी की शुरुआत में अज़ीज़ बेतियावी फिर अज़ीज़ रब्बानी के नाम से कल तक जाने जाते रहे उर्दू शेर वह अदब की दुनिया में अज़ीज़ रब्बानी अंत तक शायरी यानी नज़्म के शायर की हैसियत से याद किए जाते रहेंगे।
अज़ीज़ रब्बानी मुशायरा में इंकलाबी शायर की हैसियत से अक्सर पुकारे जाते रहे, चुके इनकी शायरी में दर्द, जोश, जज्बा, दोस्ती और मोहब्बत का पैगाम हुआ करता था कौमी परचम, भारतवर्ष ,शहीदाने वतन, मेरी धरती ,सारा हिंदुस्तान चाहिए ,उसामा का पता ,यकसा सिविल कोड काफी मशहूर नज़्म है।
अज़ीज़ रब्बानी की शायरी का कोई उस्ताद नहीं रहा इनसे इस सिलसिले में कई मर्तबा हमारी बातें हुई हैं और इन्होंने अपनी नज़्मों की किताब 'वजूद' मैं भी अपने उस्ताद का कहीं जिक्र नहीं किया है।
अज़ीज़ रब्बानी,साजन बिहारी ,साहिर बेतियावी जैसे शायरों के साथ काफी दिन तक रहे और अपनी शायरी को परवान चढ़ाते हुए शोहरत की बुलंदी तक पहुंच गए।
इनकी पहली किताब देवनागरी लिपि में 'मेरे महबूब' के नाम से काफी पहले प्रकाशित हुई है 'वजूद' इनकी दूसरी किताब है इसके बाद कोई किताब नहीं आ सकी।
इसी साल 25 मई 2022 को पुरवैया नाम की संस्था ने उनके घर पर जाकर उन्हें सम्मानित किया था जिसमें शहर के सभी जाने-माने लेखक एवं शायर ने अज़ीज़ रब्बानी के सिलसिले में काफी बातें कहीं यह यह प्रोग्राम रात गए तक बहुत खूबसूरती के साथ चला जो एक इतिहास बन के रह गया क्योंकि अब वह नहीं रहे।
अज़ीज़ रब्बानी अपने पीछे चार बेटे दो बेटियाँ छोड़ गए है जो उनके नाम रोशन करते रहेंगे।
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